कविता के बारे में
कविता एक प्रकार का साहित्य है जो आम तौर पर पद्य में लिखा जाता है जिसमें अलंकारिक भाषा का उपयोग किया जाता है, या ऐसी भाषा जिसका शाब्दिक अर्थ से भिन्न अर्थ हो सकता है, किसी भी शब्द या वाक्यांश को अर्थ के कई रंग दिए जा सकते हैं।
हम सब के मन में एक प्रश्न उठता है कि कविता है क्या ?
मनुष्य अपने भाव, विचारधारा और व्यापारों को लिए-दिए के भाव, विचारधारा और व्यापारों के साथ कहीं और कहीं लड़ाइयां हुई अंत तक पता चला है और इसी तरह जीना है। जिस अनंत रूपात्मक क्षेत्र में यह व्यवसाय रहता है उसका नाम जगत है। जब तक कोई अपने अलगाव सत्य की भावना को ऊपर नहीं उठाता तब तक इस क्षेत्र से नाना सिद्धांत और व्यापारो को अपने योग-क्षेम, हानि-लाभ, सुख-दुख आदि से सम्बद्ध करके देखा जाता है। इन सिद्धांतों और व्यापारों के सामने जब भी वह अपना पृथक्करण सत्य की धारणा से मुक्त करता है—आपका आप बिल्कुल भूलकर—विशुद्ध भाव केवल रह जाता है, तब वह मुक्त-हृदय हो जाता है। जिस प्रकार की आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है वही हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द उपदेश करती है वह उसे कविता कहती है। इस साधना को हम भावयोग कहते हैं और कर्मयोग और ज्ञानयोग के समकक्ष मानते हैं।
कविता ही मनुष्य के हृदय को सार-सम्बन्धों के शिल्प मंडल से ऊपर के लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है जहाँ जगत् की नाना गतियों के मार्मिक स्वरूपों का साक्षात्कार और शुद्ध भावनाओं का संचार होता है। इस भूमि पर पहुँचे मनुष्य को कुछ काल तक अपना पता नहीं रहा। वह अपनी सत्ता को लोकसत्ता में लीन रखती है। उसकी भावना सबकी भावना है। या हो सकता है. इस भावना-योग के अभ्यास से हमारे मनोविकारों का परिशोधन और शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह होता है। जिस प्रकार जगत् अनेक-भावात्मक है उसी प्रकार हमारा हृदय भी अनेक-भावात्मक है। इन अनेक भावों का अभ्यास और परिष्कार एक साथ समझा जा सकता है जब कि ये सभी प्रकृति समझ जगत् के भिन्न-भिन्न सिद्धांतों, व्यापारों या सिद्धांतों के साथ हो जाएं। मित्रता भाव के सूत्र से मनुष्य-जाति जगत के साथ तादात्म्य का अनुभव चिरकाल से चला आया है। जिन सिद्धांतों और व्यापारों से मनुष्य आदिम युगों से ही परिचित है, जिन सिद्धांतों और व्यापारों से ही सामने आता है नर-जीवन की शुरुआत, उनके हमारे भावों के साथ मूल या प्रत्यक्ष संबंध है। मूलतः काव्यों के प्रकाशनों के लिए हम उन्हें मूल रूप और मूल व्यापार कह सकते हैं। इस विशाल विश्व के प्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष और गूढ़ से गूढ़ सिद्धांतों को भावों के विषय या आलंबन बनाने के लिए सिद्धांत मूल सिद्धांतों और मूल व्यापारों में परिणित करना है। जब तक वे इन मूल मार्मिक शास्त्रीयों में नहीं पाए गए तब तक पुरालेख काव्य दर्शन नहीं मिला।
वन, पर्वत, नदी, नदी, निर्झर, खार, पटर, चट्टान, वृक्ष, लता, घास, फुस, शाखा, पशु-पक्षी, आकाश, मेघ, नक्षत्र, समुद्र आदि ऐसे ही चिरसहचर रूप हैं। खेत, धुरी, हल, झापड़े, चौपाए आदि भी कुछ कम पुराने नहीं हैं। इसी प्रकार पानी का डूबना, बिजली का चमकना, बिजली का चमकना, घाट का डूबना, नदी का डूबना, मेह का डूबना, कुहरे का छाना, डर से भागना, लोभ से लपकना, छीनना, झपटना, नदी या बिजनेस से बाँह का डूबना , हाथ से खेलना, आग में झुलसना, कांच का पत्थर ऐसे व्यापारों का भी मनुष्य-जाति के संबंधों के साथ अत्यंत प्राचीन सहचर्य है। ऐसे आदिम रूपो और व्यापारो में, वंशानुगत दर्शन की दीर्घ-परंपरा के प्रभाव से, भावों के उद्बोधन की गहरी शक्ति संचित है; इनमें से अन्य में रस के रूप में-परिपाक की संभावना है जैसे कल, किले, ज्वालामुखी, स्टेशन अंजिन, हवाई जहाज ऐसे सामान और अनाथालय के लिए चेक टोकरा, सर्व-हरण के नकली बनाना, मटर की चरखी कुगना या अंजिन में कोयला झोकना आदि व्यापारो द्वारा नहीं.
सभ्यता के गुण और कविता
संस्कृतियों की वृद्धि के साथ-साथ ज्यों-ज्यों मनुष्य के व्यापार बहुरूपी और जटिल होते गए त्यों-त्यों उनके मूल रूप में बहुत कुछ समानताएं घटित हुईं। भावों के आदिम और सीधे लक्ष्य के अतिरिक्त और-और लक्ष्य की शुरुआत हुई, मूल व्यापारों के सिवाए बुद्धि से प्रेरित निश्चित व्यापारों की दिशा में वृद्धि हुई। इस प्रकार बहुत से ऐसे व्यापारों से मनुष्य का ग्राहता जहाँ उसके भावों का तात्पर्य नहीं था। जैसे आदि में भय का लक्ष्य अपने शरीर और अपनी शांति ही की रक्षा तक था; पीछे गाय, बैल, अन्न आदि की रक्षा जरूरी हुई, यहां तक होता है कि-होते धन, मान, अधिकार, प्रभुता समेत कई बातें रक्षा की चिंता ने घर कर लिया और रक्षा के उपाय भी दृढ़ संकल्प से अलग-अलग प्रकार के होने लगे प्रकार क्रोध, घृणा, लोभ आदि अन्य भावों के विषय भी अपने मूल सिद्धांतों से भिन्न रूप धारण करने लगे। कुछ भावों के विषय तो अमूर्त तक होने लगे, जैसे कीर्ति की लालसा। ऐसे भावों को ही बौद्ध-दर्शन में 'अरूपराग' कहा जाता है।
भावों के विषयों और उनके द्वारा प्रेरित व्यापारों में समानता पर भी उनके संबंध मूल विषयों और मूल व्यापारों के बीच का संबंध बना हुआ है और समानता बनी हुई है। किसी का कुटिल भाई, उसे वकीलों की सलाह से एक नया अवलोकन तैयार करने के लिए कहता है। इसका उपदेश वह क्रोध से नाच है। प्रत्यक्ष दृष्टि से तो उसका क्रोध का विषय है वह उपन्यास या कागज का टुकड़ा। उस कागज़ के टुकड़े के अंदर वह देखता है कि उसे और उसकी सन्तति को अन्न-वस्त्र न मिलेगा। उसका क्रोध का प्रकृत विषय न तो वह कागज के टुकड़े है और न उस पर लिखे गए काले-काले अक्षर। ये तो परंपरा के गुण हैं। मूल रूप से उनके क्रोध में और उस कुत्ते के क्रोध में सामने का भोजन कोई दूसरा कुत्ता छीन रहा है काव्य दृष्टि से कोई भेद नहीं है—भेद केवल विषय के छोटे रूप में अंधकार में आने का है। इसी रूप में परिवर्तन का नाम है सभ्यता। इस रूप में हुआ खुलासा यह है कि क्रोध आदि को भी अपने रूप में कुछ दिखाया गया है, वह भी कुछ सभ्यताओं के साथ अच्छे कपड़े-लट्टे का व्यवसाय समाज में आता है जिससे मार-पीट, छिन-खसोट आदि भद्दे समझे जाने वाले व्यापार वालों की कुछ चिंताएं होती हैं होता है.
इस पर प्रच्छन्न रूप का मर्मस्पर्शी नहीं हो सकता। इसी से प्रच्छन्नता का उद्घाटन कवि-कर्म का एक मुख्य अंग है। ज्यों-ज्यों भिन्न-भिन्न कवियों के लिए यह काम बढ़ेगा। मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधे जुड़े सिद्धांतों और व्यापारों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से टुकड़ों में विभाजित किया जाता है। इससे यह स्पष्ट है कि ज्यो-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आकर्षण चढ़ते जाएंगे त्यों-त्यो एक ओर तो कविता की आवश्यकता होगी, दूसरी ओर कवि कर्म कठिन होता जाएगा। ऊपर जिस क्रोध व्यक्ति का उदाहरण दिया गया है कि यदि वह अपने भाई के मन में क्रोध छोड़ता है, तो दया का संचार करना चाहता है, तो क्रोध के साथ कहेगा, “भाई! ये तुम सब इसी के लिए न कर रहे हो कि तुम पक्की हवेली में जाकर हलवा पूरी खाओ और मैं एक टुकड़े में दांत चने चबाऊं, दूसरे लड़के को भी दुशाले ओढ़करें निकलें और मेरे बच्चे को रात को भी ठंड से कांपते रहे। यह हुआ प्राकृत रूप का प्रत्यक्षीकरण। संप्रदायों के बहुत से आकर्षणों में वे मूल रूप से दिखाई देते हैं, जो कि हमारे भावनाओं को एकजुट करते हैं और इस कारण भावनाओं को उभारने में अधिक सक्षम होते हैं। कोई भी जब इस रूप में बात करेगा तो उसे काव्य के उपयुक्त रूप में प्राप्त किया जाएगा। "तुमने हमें नुकसान पहुंचाने के लिए फर्जी दस्तावेज बनाए" इस वाक्य में रसात्मकता नहीं है। इस बात को ध्यान में रखते हुए, ध्वनि ध्वनिकार ने कहा - "नहि कवरितिवृत्तमात्रनिर्वाहेनात्मपदलाभः।"
देश की वर्तमान स्थिति के वर्णन में यदि हम केवल इस प्रकार का वाक्य कहें कि "हम मूर्ख, बलहीन और अफगान हो गए थे, हमारा धन विदेश चला गया है, रुपये का पैमाना पाव घी बिकता है, स्त्री-शिक्षा का अभाव है" तो ये चंदोबिदत भी काव्य पद के अधिकारी नहीं होंगे। सारांश यह है कि काव्य के लिए कई स्थानों पर हमें भावों के विषयों के मूल और आदिम सिद्धांत तक जाना जाएगा जो मूर्ति और गोचर होंगे। जब तक भावों से सीधा और पुराना साम्यवादी स्मारक और दर्शन रूप न मिलेंगे तब तक काव्य का वास्तविक ढाँचा खड़ा न हो सका। भावों के विभिन्न विषयों की तह में भी मूर्ति और स्थान के रूप में स्थान मिलेंगे; जैसे, यशोलिप्सा में कुछ दूर प्रवेश द्वार पर उस आनंद के उपभोक्ताओं की रुचि पैदा हुई पाई जाएगी जो अपने कान में रिकॉर्डिंग से हुआ है।
काव्य में अर्थशास्त्र से काम नहीं चलता; बिम्बग्रैंज मशीन होती है। यह बिम्ब्ग्रेन निदिष्ट, प्रेत और मूर्छ विषय का ही हो सकता है। 'रुपये का सिद्धांत पाव घी है,' इस कथन से कल्पना की गई है कि यदि कोई बिम्ब या मूर्ति उपस्थित होगी तो वह नामांकित बनिये की होगी जिससे हमारे करुणा भाव का कोई संबंध नहीं होगा। बहुत कम लोगों को घी खाने की आदत होती है, ज्यादातर लोग रूखी-सुखी खाते हैं, इस तथ्य तक हम अर्थग्रह-परंपरा द्वारा इस चक्कर के साथ घूमते हैं—
Comments
Post a Comment